Monday 18 April 2011

भाग २ - क्या हम अपनी कक्षाओं में बच्चों को भ्रष्ट्राचार सिखाते हैं?


इस पोस्ट का भाग १ मिलेगा - इधर 

एक और तरीका भी है जिस से हम कक्षा में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं. ये है इस बात पर बल देकर कि अपने आप सोचने की बजाये, दूसरों की नक़ल करो, अनुसरण करो, या उनके हिसाब से चलो. हमारी सदियों पुरानी परम्पराएँ आज्ञापालन  और बिना सोचे अपने से 'बड़ों' और बुजुर्गों और गुरुओं और अधिकारीयों को आदर  देना सिखाती हैं. ये जो हमारे 'ऊपर' हैं, इन पर कोई भी सवाल नहीं उठा सकता - इसे एक बहुत बड़ी बेईज्ज़ती समझा जाता है, केवल व्यक्ति की ही नहीं बल्कि 'कुर्सी' की, हमारी पुरानी परम्पराओं की और पूरे समाज के आधार की! 'अधिकार' वाले व्यक्ति की तो 'नीचे' वालों की ओर कोई जवाबदेही ही नहीं होती, और पूरी तरह 'सत्ता' उसके हाथ में होती है. और जैसा कि हम जानते ही हैं, सत्ता में आना भ्रष्ट्राचार को बढ़ावा दे सकता है.

इस सब के चलते हमारे स्कूलों में बच्चों को किस तरह के रोल मॉडल मिलते हैं? कई जगहों पर होते हैं ऐसे शिक्षक जो शायद समय पर नहीं आते हों, या पढ़ाते नहीं हों, या बच्चों से बुरा बर्ताव करते हों (पीटना तो कई बार दूसरे कामों की तुलना में इतना बुरा नहीं होता!), और अलग-अलग तरीकों से अपनी धाक जमाते हों, और बच्चों की ओर प्रतिबद्धता कम ही दिखाते हों. जब बच्चों को खुद ऐसे ही अधिकार वाली भूमिका दी जाती है (जैसे कि मोनिटर बनना या समूह का नेता), सबसे पहले वे उसी 'अधिकारी-पन' और 'धाक' कि नक़ल करते हैं. छोटी बच्ची भी जब गुड़ियों के साथ 'टीचर-टीचर' का खेल खेलती है तो वह छड़ी उठाकर चेतावनी देती हुई निगाहों से गुड़ियों की ओर देखती है! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि बड़े होते-होते बच्चे ये ही समझ जाते हैं कि जब भी वे ऐसी पोजीशन में हों जहाँ वे दूसरों के 'ऊपर' हों, तो उन्हें अपना दबदबा जमाना है, जवाबदेही नहीं लेनी है और जो कुछ अपने लिए ले सकते हैं उसे हड़प लेना है भले ही दूसरों को कितना नुक्सान हो (आख़िरकार, आप की 'पोजीशन' आपके अपने लिए है, 'उनके' लिए नहीं). अगर ये भ्रष्टाचार नहीं तो क्या है?

शायद इसी वजह से हमारे समाज में और विशेषकर हमारी कक्षाओं में, जो बच्चा सवाल पूछता है उसे 'तंग करने वाला' समझा जाता है, उससे कहा जाता 'बहुत स्मार्ट मत बनो, नहीं तो देख लेंगे!' और यहीं आकर शिक्षा में सुधार की हमारी कोशिशें फुस्स हो जाती हैं. चूँकि नई 'सक्रिय' शिक्षण विधियाँ बच्चों के खुद से सोचने पर जोर देती हैं, और सवाल पूछने, खोज-बीन, चिंतन-विश्लेषण कर के अपने निष्कर्षों तक पहुँचने को बढ़ावा देती हैं - और इनके बारे में समझा जाता है कि ये तो हमारे समाज के आधार और कक्षाओं के परम्पराओं पर चोट पहुंचाती हैं.

अगर हमारी कक्षाएं ऐसे होती जहाँ बच्चे सवाल उठा सकते, उन्हें ये पूछने में देर नहीं लगती कि शिक्षक वे क्यों नहीं कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए. वे समुदाय के साथ कई तरह के मुद्दे उठाते - सुविधाओं, स्कूल चलने के समय, प्रक्रियाओं और उनके अपने अधिकारों के बारे में... और भ्रष्ट्राचार व उसका रोल मॉडल बनाना मुश्किल हो जाता. तो हो सकता है कि आपको लगे कि मैं बेकार में ही इसे षड़यंत्र समझता हूँ, लेकिन मुझे तो लगता है कि 'शिक्षक का अनुपालन करो' भ्रष्टाचार को बनाये रखने और छोटी उम्र में बच्चों में भ्रष्ट बनने के सम्भावना को पैदा करने का हिस्सा ही है.

क्या हम अपनी कक्षाओं में बच्चों को भ्रष्ट्राचार सिखाते हैं?

देश भर में सैकड़ों, हजारों लोग भ्रष्टाचार के विरोध में उमड़ रहे हैं, अलग-अलग शहरों में घरों से बहार आ रहे हैं. और इस सब के पीछे, भ्रष्टाचार चुपके-चुपके हमारी कक्षाओं में जड़ पकड़ रहा है. देखने में यह इतना स्वाभाविक लगता है कि इसे भ्रष्ट्राचार की तरह देख पाना मुश्किल है. और यही कठिनाई भी है - हम व्यस्क लोग कई बार अपनी आखों के सामने हो रहे भ्रष्ट्राचार को भी नहीं पहचान पाते हैं क्योंकि यह वही संस्थागत आदत है जिसमें हम पले-बढ़े हैं.

कैसे होता है यह? उस बात से शुरू करिए जो सबके लिए सबसे ज्यादा मायने रखती है - परीक्षा के 'परिणाम'. ये इतने महत्वपूर्ण समझे जाते हैं की अगर हमें अछे 'मार्क' मिलें जिनके हम हक़दार नहीं हैं, तो भी ये मान्य हैं. यहाँ पर मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो नक़ल या बेईमानी करते हैं, बल्कि वे जो 'आखिरी क्षण' में पढ़ कर ठीक अंक ले आते हैं, या 'वे तीन सवाल जिनकी तैयारी की थी' पाकर अच्छा परिणाम पाते हैं. इन हालातों में, तथाकथित 'इमानदार' व 'सिंसीयर' छात्र (और उनके माता-पिता) भी वे लेने से नहीं कतराते जिसके वे हकदार नहीं हैं (और यही तो भ्रष्ट्राचार है).

परिणामों पर यह जोर हमें प्रक्रिया  को अनदेखा करने का प्रोत्साहन देता है. बच्चों को कहा जाता है कि जहाँ समझ में नहीं आ रहा है, वहां रट लें, और मेहनत कर के पढ़ने की बजाये इग्जाम गाइड का प्रयोग करें. इस हद तक होता है यह कि बच्चों को अगर सच में कुछ समझाने की कोशिश करो तो वे विरोध करते हैं, यह कहते हुए कि 'ये तो परीक्षा में आने वाला नहीं है.' छोटी उम्र में ही उन्होंने भ्रष्टाचार के बारे में एक महत्वपूर्ण सबक सीख लिया है - नतीजे की ओर देखो, प्रक्रिया को नज़रंदाज़ करो, और परीक्षा के पीछे के कारण की ही उपेक्षा करो: जो है सीखने को संभव और सुनिश्चित करना. आगे के जीवन में, भले ही ट्रेफिक के नियमों की बात हो या टैक्स देने की या सुरक्षा और कानून के नियमों की बात हो, सब को इसी तरह से नज़रंदाज़ और खोखला किया जाता है. उद्देश्य ये है की जो चाहते हो, कैसे भी पाओ, सिस्टम क्या है या क्यों बनाया गया है, ये सब जाए भाड़ में! और छोटी ही उम्र में ये सीखा जाता है हमारी कक्षाओं में.

इस पोस्ट का भाग २ मिलेगा इधर.

Sunday 10 April 2011

प्रधान अध्यापक - क्या करे, क्या न करे?

आपकी नज़र में, वे कौन से तीन चीज़ें हैं जो प्रधान अध्यापकों को बिलकुल नहीं करनी चाहिए? और कौन सी तीन सच में करनी ही चाहिए? 

आपके जवाबों का इंतज़ार है. नीचे के कमेंट्स सेक्शन में लिखें.

(जैसा की आप समझ ही गए होंगे, प्रधान अध्यापकों के लिए प्रक्षिक्षण बनाया जा रहा है - आपके योगदान और भूमिका की सराहना की जाएगी!)