Saturday 16 October 2010

क्यों बदलूं मैं अपने आप को?

अगर आप शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं तो आज कल अपने आप को बदलने का काफी दबाव झेल रहे होंगे. जैसे गब्बर सिंह के आने का डर था, वैसे ही आर टी ई (शिक्षा का अधिकार कानून) का भी खौफ फ़ैल रहा है!

लेकिन अपने आप को बदलने के कारण तो वास्तव में कुछ और हैं. जो बदलाव चाहे गए हैं, वे वही हैं जिन से हम भी सहमत होंगे - जैसे बच्चों की ज़रूरतों को महत्व देना, अपने काम को प्रभावशाली तरीके से करना, बिने शारीरिक व मानसिक हिंसा के.

इसी लिए अपने आप को बदलने के कारण कुछ इस प्रकार हैं -
१. नए तरीकों से पढ़ाने में मज़ा आता है, बोझ कम हो जाता है, और कम काम/उर्जा से अधिक परिणाम मिलता है.  (आपको विश्वास नहीं होता तो कमेन्ट डालिए, मैं  विस्तार से लिखूंगा)
२. हम व्यवसायिक लोग हैं, एक मानक के हिसाब से अच्छा काम करके पैसा लेते हैं.
३. हमारा हक है कि हम अपने व्यवसायिक जीवन का आनंद लें!

ये तो थी आसान बात. लेकिन असली सवाल है कि बदलें क्या? और किस तरह से? इन पर पहले आप के सुझाव हो जाएँ, फिर मैं अपनी ओर से लिखूंगा.

Tuesday 12 October 2010

कैसे रिसोर्स पर्सन नहीं बनें

जब भी शिक्षा में दिशा तय करने की कोशिश होती है तो दो अलग तरह के स्रोतों पर जोर होता है. पहला तो है, शिक्षा के पितामाह किस्म के सीनियर लोग, जो कि आस्था चैनेल की तरह लम्बे-लम्बे प्रवचन देतें हैं और माना जाता है कि हम नादान लोगों को इससे प्रेरणा व दिशा मिलती है. आजकल इनके कुछ छोटे भाई भी हो गए हैं, जिन्हें हम मठादीश की उपाधि देंगे -- ये किसी एक विचारधारा के समर्थक होते हैं और मानते हैं कि जो भी इनके दायरे में नहीं आता, वह तो बात करने लायक भी नहीं है. कुल मिला कर ये दोनों तरह के लोग भक्तों की तलाश में रहते हैं. कहीं ना कहीं यह धारणा भी रहती है कि ये सच में बहुत कुछ जानते हैं और बाकी लोग दिमाग से कमज़ोर हैं.

दूसरा स्रोत है - आंकड़े-धारी लोग. इनके पास तरह-तरह की जानकारी होती है - बच्चों, शिक्षकों, स्कूलों, आदि के बारे में. इनकी नज़र में प्लैनिंग व क्रियान्वयन के मुख्य ध्येय है व्यवस्था को सही आकड़ों तक पहुँचाना. इनकी दृष्टि में भी आम आदमी व उसके कार्य मात्र एक माध्यम हैं - वही सही आकड़ों तक पहुँचने में.

आगे तो आप समझ ही गए होंगे कि हमें कम से कम इस तरह के रिसोर्स पर्सन तो नहीं ही बनना चाहिए. तो फिर किस तरह का रिसोर्स पर्सन बनना चाहिए ? इसके बारे में लिखेंगे अगली बार!

Saturday 9 October 2010

मिस्ड कॉल बच्चों की

जब से मोबाइल फ़ोन सस्ते हुए हैं, हम सब ज़रूरत पड़ने पर मिस्ड कॉल मार रहे हैं. बोला भी जाता है, 'कुछ चाहिए हो तो मिस्ड कॉल मार देना.'  लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर तरह की मिस्ड कॉल केवल फ़ोन से ही मारी जाए. देखें तो हर जगह हम एक दूसरे को कई तरीकों से इशारे करते रहते हैं, संकेत देते रहते हैं और रेस्पोंस भी करते हैं.

इसी तरह कक्षा में भी बच्चे हमें कॉल मारते रहते हैं, लेकिन हम मिस ही करते रहते हैं! उनके चेहरे, हाव-भाव और उत्साह में अचानक कमी से हमको पता चलना चाहिए कि वे हमारी बातें समझ रहे हैं कि नहीं, मन से भाग ले रहे हैं या नहीं... उनके किये गए काम से दिख जाता है कि हम उन तक पहुँचने में कितने सफल रहे.

अगर हमारे कमरे में घुसते ही शांति हो जाये या रौनक बढ़ जाये तो हमें कुछ सन्देश दिया जा रहा है. बच्चे कक्ष में अपने काम के लिए बेहिचक घूमते हैं या एक दूसरे की मदद करते हैं, तो वे हमें बता रहे हैं कि वे हम पर पूरी तरह विश्वास करते हैं. क्या बच्चे हमारे पास आने से कतराते हैं या खुल कर अपनी बात बताते हैं? क्या वे हमारी आँखों में आँखें डाल कर बातें कर पाते हैं?

ये हैं कुछ मिस्ड कॉल जो बच्चे हमें मारते हैं. और कौन-कौन सी कॉलें हैं जिन्हें हम मिस करते रहते हैं?

और क्या इसी तरह प्रक्षिक्षण के दौरान आप भी अपने प्रशिक्षक को मिस्ड कॉल मारते हैं? और क्या वे कॉलें ली जाती हैं?

Wednesday 6 October 2010

मेहनती नहीं, स्मार्ट बनिए !

जब भी शिक्षकों का प्रशिस्क्षण किया जाता है, उन्हें तरह-तरह की घिसी-पिटी बातें बताई जाती हैं. 'आप देश का भविष्य हैं, बहुत ज़िम्मेदारी है आपके कन्धों पर, जाइए जा कर खूब मेहनत करिए.' है न? सुनाया जाता है कि नहीं? और बार-बार सुन कर कान पक चुके हैं कि नहीं?

दरअसल यह बड़ा मासूम सा विचार है - जैसे कि केवल मेहनत करने से सब कुछ हो जाता है. नहीं भैय्या, दिमाग लगाना पड़ता है, दिमाग! जिन लोगों का काम केवल मेहनत का ही माना जाता है, वे लोग अपना दिमाग लगा कर ही ठीक से काम कर सकते हैं -- जैसे कि ट्रक से सामान उतारने वाले लेबरर, खेत में काम करता किसान, गड्ढा खोदने या सिर पर मलबा ढोने वाले लोग. अगर वे बिना सोचे-समझे अपना काम करें तो उन्हें चोट लग सकती है, नुकसान हो सकता है, फटकार लग सकती है.... तो शिक्षक के मामले में तो ये बात कहीं और ज्यादा लागू होगी!

स्मार्ट शिक्षक कक्षा में बच्चों की भूमिका बहुत अधिक बढाते हैं - और केवल साफ़-सफाई और रख-रखाव के मामले में ही नहीं, बल्कि सीखने की प्रक्रिया में. उदहारण के लिए चौथी कक्षा की शिक्षिका ने बच्चों से कहा,"जानते हो इस कहानी में एक दिन जब सिंह सो कर उठा, तो उसके सिर पर बाल ही नहीं थे. फिर उसने क्या किया अपने बाल वापिस पाने के लिए? पढो और पता करो!'

जब बच्चे पढने लगे तो वह उन बच्चों के साथ बैठ गयी जो कि पीछे छूटने के खतरे में थे. थोड़े समय के बाद उसने सबसे कहा, 'पढ़ कर जो शब्द समझ में नहीं आते हैं, उन पर गोला लगाओ. फिर अपने पड़ोसी से पूछो.' जब सबने यह काम कर लिया तो उसने समूह को कहा कि एक दूसरे से गोले लगे शब्दों के अर्थ पता करो. जो तुम लोग नहीं कर पाओगे, वे शब्दों को में बता दूँगी.'

आप सोच सकते होंगे कि इसके बाद उसने क्या किया होगा. पूरे समय इस शिक्षिका का हरेक बच्चा काम पर लगा रहा, सीखता रहा, दूसरों को सिखाता रहा, और वह खुद बहुत ही रेलाक्स्ड रही!

क्या हम भी इस तरह थोड़े आलसी और स्मार्ट बन सकते हैं?

Monday 4 October 2010

क्या पढ़ायें - पाठ्यचर्या या पाठ्यक्रम या पाठ्यपुस्तक?

आम तौर पर यही माना जाता है कि हमारा काम है पाठ्यपुस्तक को अच्छे से 'कवर' करना. लेकिन कोई भी पाठ्यपुस्तक अपने आप में पूरी शिक्षा के बराबर नहीं होती. वास्तव में वह उसका हिस्सा ही होती है, और तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मात्र एक सामाग्री. यानी, वह साध्य वहीँ बल्कि एक साधन है. यहाँ तक कि बहुत सारे देशों में तो पाठ्यपुस्तक ही नहीं होती. और हमारे गुरुकुलों में भी नहीं होते थी, क्योंकि गुरु ही तय करते थे कि कौन क्या सीखेगा, कितना और कैसे सीखेगा.

वास्तावे में तो पढ़ाने की सही दिशा मिलती है पाठ्यचर्या (curriculum) से. यह बताता है कि हमारे यहाँ चल रही शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य क्या हैं, किस तरह के बच्चों व समाज की कल्पना की गयी है, विषयों का क्या महत्व समझा गया है, और चाही गयी शिक्षा का व्यवहारिक रूप देने के लिए क्या सुझाया गया है.

इसी का एक हिस्सा होता है पाठ्यक्रम (syllabus) जो कि मुख्य तौर पर विषयों पर केन्द्रित होता है, कक्षानुसार सीखने के लक्ष्य, उनके क्रम व अनुपात (यानी कितना पढ़ाना है) को साफ़-साफ़ रखता है. यह भी बताता है कि मूल्यांकन में किन बिन्दुओं पर कितना जोर होगा.

हालाँकि पाठ्यपुस्तक को पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम के आधार पर ही बनाया जाता है, सीखने के कई लक्ष्यों को पुस्तक में शामिल ही नहीं किया जा सकता - जैसे कि प्रवाह से भाषा का प्रयोग करना, तर्क करना, वैज्ञानिक मानसिकता, व सामाजिक कौशलों का विकास, आदि, आदि. इस बात को मानना ज़रूरी नहीं है - अपने यहाँ के पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम का उठायें और पाठ्यपुस्तकों से तुलना कर के देख लें.

तो फिर पढ़ाएंगे कैसे? प्लानिंग कैसे करेंगे कि क्या पढ़ाना है, किस क्रम में, और कितना? जी हाँ, सही बताया आपने - पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए पाठ योजना / पढ़ाने की योजना बनायेंगे. इस योजना में उपयुक्त जगह पर पाठ्यपुस्तक का उपयोग भी करेंगे!

Saturday 2 October 2010

जो जहाँ है वहीँ कुछ करे, और अच्छे से करे

सुधार की बात आते ही हमें लगता है की 'हम क्या करें? ये तो ऊपर वाले तय करेंगे.' लेकिन ऐसी सैकड़ों चीज़ें हैं जो हम खुद ही कर सकते हैं, जिनके लिए हमें न तो कोई आदेश / निर्देश की ज़रूरत है, न पैसे की, न ही किसी विशेष कौशल की. 


जैसे अगर हम शिक्षक हैं तो:

  • बच्चों की ओर देख कर मुस्करा सकते हैं! कई बार इसी से बहुत फर्क पड़ सकता है. और यह सबसे आसान चीज़ है.
  • पाठ पढ़ाने के पहले थोड़ी सी तयारी कर सकते हैं (बहुत सारे स्कूलों में तो संदर्शिकाएं भी उपलब्ध हैं).
  • इस पर नज़र रख सकते हैं की कौन से बच्चे पिछड़ने के खतरे में हैं - और उन पर थोड़ा अधिक जोर दे सकते हैं.
  • समय-समय पर देख सकते हैं की बच्चों को समझ में आ रहा है कि नहीं.

और भी बहुत कुछ होगा जो आसानी से किया जा सकता है - सुझाव आमंत्रित हैं!


अगली बार - अगर आप सी आर सी पर हैं, तो आप क्या कर सकते हैं?

Friday 1 October 2010

पागलों की बिरादरी

पागलों की बिरादरी - यह भी कोई बात होती है?

जी हाँ, यह उन लोगों की बात हो रही है जो सच में कुछ करने की कोशिश करते हैं और पाते हैं की दूसरे उन्हें पागल का दर्ज़ा देते हैं. जैसे जब एक शिक्षक सच में पढ़ने लगता है तो बाकी शिक्षक कहते हैं, "अरे, पागल तो नहीं हो गए? तुम ऐसा करोगे तो हम सब को भी सच में पढ़ना पड़ेगा."

वर्षों तक झेलने के बाद, अब ये सारे 'पागलों' ने एक दूसरे को ढूंढना शुरू कर दिया है. अगर आप शिक्षा में काम करते हैं, और चाहते हैं की जहाँ भी हैं, अच्छा काम करें, तो बिरादरी में आपका स्वागत है!