Wednesday 29 December 2010

सुक्रात आये हमारे स्कूल

हाल ही की बात है - सुक्रात हमारे स्कूल आये. कहीं शायद जन्नत में भी बात चल रही थी कि भैय्या गजब का एक स्कूल है धरती पर, देखने लायक. इसलिए, करीब दो हज़ार साल के बाद सुक्रात धरती पर आये, और पहुँच गए सीधे हमारे स्कूल.
     बड़ा सा गेट है स्कूल की चारदीवारी पर - और उस में है दरवज्जा. ऊपर एक बोर्ड है - जिस पर लिखा है - "आदर्श विद्यालय, बालकों और बालिकाओं के लिए उत्कृष्ट शिक्षा". वहीँ पर मिल गए बड़े गुरूजी. सुक्रात जी तो और भी बड़े गुरूजी. दीखते ही उन्होंने पूछ डाला - 'ये आदर्श से क्या मतलब है आप का?'
     बड़े गुरूजी को दिखा कि कोई नाटा-सा मोटा बुड्ढा दो हज़ार साल पुराना लिबास ओढ़े उनसे सवाल पूछ रहा है. लेकिन आदर्श विद्यालय के प्राचार्य जो थे. उन्होंने अपने आप को संभाला और सभ्यता से उत्तर दिया: 'जी, आदर्श और उत्कृष्ट, दोनों का मतलब है कि बहुत अच्छा है हमारा स्कूल.'
     'इतनी हिंदी तो मुझे भी आती है,' सुक्रात जी ने कहा (जन्नत के वही चिकने टाइप के लोगों के साथ रह कर उनकी सहनशीलता थोड़ी कम हो चली थी). 'ये अच्छा क्यों कहते हैं आप अपने आपको?'
     बड़े गुरूजी दरवज्जे के आधे ही अन्दर थे. वे सोचने लगे कि अन्दर जाएँ या बहार आकर जवाब दें. उन्होंने भांप लिया कि कोई लम्बी बात वाला बुड्ढा है, और सुक्रात जी की कोहनी पकड़ कर उन्हें ही स्कूल के अन्दर खींच लिया. 'जनाब अच्छा इसलिए है क्योंकि हमारे बच्चों के रिजल्ट बहुत अच्छे आते हैं.'
     'रिजल्ट याने?'
     'जी, परीक्षा में अंक, और क्या.'
     सुक्रात जी ने एक हलकी सी फुंफकार मारी और अपने लिबास से थोड़ी से दो हज़ार साल पुरानी धूल झाड़ी और बोले, 'अच्छे अंक तो बच्चों को पीट कर भी लाये जा सकते हैं.'
     'लेकिन हम तो इतना ज्यादा नहीं पीटते हैं. वैसे भी अब तो कानून के तहत...'
     'पिटाई से मुझ को मतलब नहीं - कहने कि बात ये है कि अच्छे अंक पिटाई से लाये जा सकते है या नक़ल कर के भी. तो सिर्फ अच्छे अंक आ जाने से ही तो आप अपने आप को उत्कृष्ट विद्यालय नहीं कह सकते?'
     अब हमारे बड़े गुरु जी भी तो कोई कम थोड़े ना हैं. तपाक से बोल पड़े - 'अरे, ना पिटाई से, ना नक़ल से, बरन अच्छी पढ़ाई से हमारे बच्चे अच्छा करते हैं.' और उतनी ही तपाक से फँस भी गए.
     'तो अच्छी पढ़ाई से क्या मतलब है आप का?'
     'अच्छी पढ़ाई? अच्छी पढ़ाई याने... याने टीचर रोज़ नियमित पढ़ाता है, तयारी करता है, समझाता है, मीठी वाणी बोलता है...'
     'वैसे तो नियमित आकर भी कोई कमज़ोर तरीके से पढ़ा सकता है, है ना?'
     बड़े गुरूजी ने थोड़ा सोचा. अंत में बोले, 'अब तर्क के दृष्टिकोण से देखें तो हाँ, संभव तो है... कि समय पर आकर भी कोई साधारण ही पढ़ाता हो.' लेकिन ये कहते हुए वे थोड़े कम खुश दिख रहे थे.
     किन्तु सुक्रात जी भी तो सुक्रात जी ही थे ना. इतने से वे कहाँ मानने वाले थे. बोले: 'तो हमने देखा कि नियमित होना अच्छी पढाई के लिए एकदम अनिवार्य बात नहीं है. कुछ और चाहिए है. देखें तैयारी को. कोई गलत तैयारी भी कर सकता है, और ज़रूरी नहीं कि तैयारी करनी के बाद सच में वैसा ही पढ़ाये जैसी तैयारी की थी. अच्छी पढ़ाई के लिए तो कुछ और चाहिए है.'
     अब तक गुरूजी का भेजा फ्राई होना शुरू हो चुका था. उन्होंने अपने मेहमान के लिए चाय का आर्डर देने का विचार छोड़ दिया. पर इस सब से अनभिज्ञ, सुक्रात जी रोड रोलर की तरह बढ़ रहे थे. 'ये "समझाने" को अच्छी पढ़ाई क्यों कहा जाता है?'
     'मतलब?'
     'मतलब ये कि बहुत सारी बातें तो कौशल कि तरह होती हैं, जैसे तीरंदाजी या घुड़सवारी.' (सुक्रात जी अभी भी वही दो हज़ार साल पुराने और टिकाऊ टाइप के उदहारण का उपयोग कर रहे थे, लेकिन उनकी बात हस्त कौशल और मौलिक लेखन और कंप्यूटर गेम्स पर भी लागू हो सकती थी.) 'तो कौशल वाली बातें तो खुद कर के ही सीखी जाती हैं.'
     गुरूजी की आँखें सांकरी होने लगी थीं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें गुस्सा आना चाहिए या उनकी हवाइयां उडनी चाहिए.
     उधर सुक्रात जी की आँखें हलकी सी बंद सी हो रही थीं. वे अपने पूरे प्रवाह में थे - दो हज़ार साल बाद कोई मुर्गा जो पकड़ में आया था. 'और फिर ये तो आप मानेंगे ही कि शिक्षा का बहुत बहुत बड़ा उद्देश्य है व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना. इधर फिर से, केवल समझाना काफी नहीं है. छात्र तो शिक्षक के आचरण, उसके व्यवहार, उसके खुद के जीने के तरीके से सीखता है. इसके आलावा तर्क करना तो बहुत ही महत्वपूर्ण है. तर्क से ही छात्र के अपने विचार पकते है और उसके ताप में ही उसका चरित्र फौलाद कि तरह मज़बूत बनता है.'
     गुरूजी को तर्क का ताप तो बहुत मिल रहा था लेकिन उनके अन्दर का चरित्र चरमराता प्रतीत हो रहा था. इससे पहले कि वह पूरी तरह पिघल जाए, उन्होंने पूछ डाला: 'लेकिन समझाने से परीक्षा में मदद तो मिलती है; ये तो आप को मानना होगा?'
     सुक्रात जी एक क्षण के लिए चुप थे. गुरु जी ने सोचा कि राहत कि सांस ली जाये. इतने में सुक्रात जी ने धीरे से पूछा: 'तो क्या आप चरित्र की परीक्षा लेते हैं?'
     'हैं?' साइकिल के टायर से निकलती हवा की नक़ल करने के अंदाज़ में गुरूजी से आवाज़ निकली.


अब कहाँ जा कर यह डायलोग ख़त्म हुआ? क्या बड़े गुरूजी सुक्रात जी को वापस जन्नत में ठेलने में सफल हुए? क्या सुक्रात जी ने आखिर स्कूल के नाम से 'आदर्श' और 'उत्कृष्ट' भी हटवा दिया (और शायद 'स्कूल' भी!). पढ़िए अगली पोस्ट में!!

पी एस - चाहें तो अपनी ओर से डायलोग बना कर भी भेज सकते हैं; मैं कुछ उदहारण आगे की पोस्टों में शामिल करूँगा.











Sunday 12 December 2010

कहीं आप पाठ्यपुस्तक के शिकार तो नहीं?

हम अपने बचपन से ही पाठ्यपुस्तकों के इतने आदि हो चुके हैं कि हमें ख्याल ही नहीं आता कि वे मुश्किलें भी पैदा कर सकती हैं. अगर आप शिक्षक हैं, या किसी भी तरह से शिक्षा से जुड़े हैं, तो पाठ्यपुस्तकों के इन तीन पहलुओं पर ज़रूर गौर करें - ये ऐसे हैं कि आपको या आपके बच्चों को सच में नुकसान पहुंचा सकते हैं!
  • पहला, ना जाने क्यों, बहुत सारे लोग पाठ्यपुस्तक को ही पाठ्यचर्या समझ लेते हैं! सोचा जाता है कि शिक्षक का काम याने पुस्तक 'पूरा' करना. जैसे कि इसके अलावे कुछ और हो ही ना. दुर्भाग्य से किसी भी पाठ्यचर्या में इतना कुछ होता है जो कि पुस्तक द्वारा कवर नहीं किया जाता - जैसे, दूसरों के सामने आत्मविश्वास से बोलना, दूसरों से बहस करते हुए भी उनके दृष्टिकोण का आदर करना, तर्कसंगत रवैय्या अपनाना, समस्याएँ सुलझाना, सृजनशीलता और कल्पना, वैज्ञानिक मानसिकता...  ये ऐसे उद्देश्य हैं जो कि 'अध्यायों' या 'पाठों' के माध्यम से पूरे नहीं किये जा सकते हैं. हाँ, ऐसी पाठ्यपुस्तकें ज़रुर बनाई जा सकती हैं जिनमें ये पहलू हों, पर क्या आपका कभी इनसे पाला पड़ा है? इसलिए, पाठ्यपुस्तकों पर पहला आरोप है: पाठ्यपुस्तकें शिक्षा को उन बातों तक सीमित कर देती हैं जो पुस्तकों में समा सकती हैं, और वो शामिल भी नहीं करती हैं जो कि किया जा सकता है.
  • दूसरे, सीखने कि शुरुआत या खोज-बीन का बहाना (जिसके सहारे बच्चा खुद जूझ कर अपनी समझ की रचना करे) बनने कि बजाये, पाठ्यपुस्तकें खुद ही अपने आप में एक अंत बन जाती हैं. हम सब ने ये वाक्य ज़रूर सुना होगा, कि पाठ्यपुस्तकें वेद-पुराण की तरह बन गयी हैं - जिन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है, और जिनमें शामिल की गयी बातों का बिना कुछ पूछे पालन किया जाना है. आज के ज़माने में क्या किसी शैक्षिक सामग्री की ये भूमिका हो सकती है? इसलिए, दूसरा आरोप: पाठ्यपुस्तकें साधन की जगह साध्य बन चुकी हैं.
  • तीसरा, और सबसे बड़ा 'जुर्म' है कि पाठ्यपुस्तकें बहुत बड़ी तादाद में बच्चों को सीखने की प्रक्रिया से बाहर रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं. वे शिक्षक को बाध्य करती हैं कि वह सभी को एक ही गति से पढाये, सभी एक ही पन्ने पर हों और एक ही चीज़ पर काम कर रहें हों. बहुत सारे बच्चे, विशेष तौर पर वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले, इस गति पर नहीं चल पाते हैं. न ही उनके सीखने के तरीके किताब में कहीं झलकते हैं. इस सब के आलावा, पुस्तकें तथाकथित 'मानक' भाषा में लिखी होती हैं जो कि बच्चों की घर की भाषा से अलग होती है, और ऐसी संस्कृति दर्शाती है जो उनके लिए परे होती है. (मेरा विश्वास न करें, किसी   पाठ्यपुस्तक को उठायें और अपने आप से पूछें कि अगर आप झुपड़पट्टी या सड़क पर रहने वाले या आदिवासी बच्चे  होते, तो क्या आपकी दुनिया इस किताब में कहीं भी झलक रही है.) धीरे-धीरे, ये बच्चे कक्षा में चुप होते जाते हैं औरे सीखने की प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं, या कभी-कभी तो स्कूल से ही... अतः, तीसरा आरोप: पाठ्यपुस्तकें बच्चों को हाशिये पर लाने औरे सीखने से बाहर करने, और जो पहले से ही वंचित हैं उनसे और मौके छीनने के लिए ज़िम्मेदार हैं.
तो क्या इसका मतलब यह है कि पाठ्यपुस्तकें होनी ही नहीं चाहिए? जी नहीं, इसका मतलब है की पाठ्यपुस्तकों की ये कमज़ोरियाँ बिलकुल भी मान्य नहीं हैं, और आगे बनने वाली किताबों का रूप, गुण और उपयोग पहले से कहीं अलग होना चाहिए! किस तरह अलग? ये ही तो आप हमें लिख कर सुझायेंगे!

Monday 29 November 2010

अगर आप स्कूली शिक्षा में तीन चीज़ें ही बदल सकते, तो वे क्या होतीं?

पिछले दो दशकों से शिक्षा में सुधार पर काम करते-करते अब हमारे पास इतने ज्यादा विचार / सुझाव हो गए हैं कि समझ ही नहीं आता कि इस गुत्थी के छोर किस ओर है! इसीलिए आप से पूछ रहा हूँ कि आप अगर तीन चीज़ें ही बदल सकते, तो वे क्या होतीं? अगर कई लोगों को कुछ बदलाव ज़रूरी या शुरुआत के लिए अच्छे लगते हैं, तो हो सकता है कि हमें दिशा मिले.

अतः, आप के सुझाव आमंत्रित हैं, कृपया इस मामले में कंजूसी ना दिखायें, जल्द ही सोचें और लिखें. [आप अंग्रेजी लिपि में हिंदी लिख सकते हैं, कमेंट्स के लिए विचार चाहिए, अंग्रेजी नहीं!]

क्या होता है 'बेहतर स्कूल'?

यह भी कोई सवाल हुआ? अरे भाई, बेहतर स्कूल वही है जो अच्छा स्कूल होता है. जहाँ अच्छी पढाई होती है, बच्चे और शिक्षक और माँ-बाप सब स्कूल से खुश हैं - यही तो हुआ ना बेहतर स्कूल?

दुर्भाग्य से इस मासूम परिभाषा के दिन पूरे हो चुके हैं. 'मासूम' इसलिए क्योंकि बिना ख़ास सोचे समझे कुछ बातें कह दी गयीं - इनके पीछे की गहराइयों को नहीं समझा गया. साथ ही, यह परिभाषा ऐसी है कि इसे पढ़ कर कोई समझ नहीं सकता कि आखिर करना क्या है? आप समझ पाए? मैं तो नहीं समझ पाया! नहीं, ऐसी परिभाषा चाहिए है जो केवल शब्दों में न रहे, बल्कि जिसे ठोस कदमों में बदला जा सके. और अब शिक्षा के अधिकार कानून आने के बाद तो यह और भी out-dated (पुरानी) हो चुकी है.

आज के सन्दर्भ में, अगर 'अच्छे' या 'बेहतर' स्कूल की ओर बढ़ना है, तो आगे दी गई बातों पर ध्यान देना होगा. [आगे बढ़ने के पहले एक कॉपी लें ताकि ज़रूरी बातों को लिखते रह सकें, यहाँ दिए गए सवालों के जवाब भी नोट कर पाएं.]


एक शिक्षक ने कहा,'मेरा स्कूल बिल्डिंग में नहीं है. वह तो उसमें है जो मेरे बच्चों और मेरे बीच होता है. और कोई उसे तोड़ या चुरा नहीं सकता!'

बात गहरी है, और 'अच्छे स्कूल' की परिभाषा के लिए अहम् भी. [आगे पढ़ कर लिखें कैसे]


तीन पहलुओं को मिल कर बनता है एक स्कूल. ये हैं -
- नतीजे
- प्रक्रियाएं
- सम्बन्ध

सिर्फ तीन? आप सोच रहे होंगे कि इतने से हो जाएगा काम? देखिये आगे कि क्या निकल कर आता है इनसे.

नतीजे
आम तौर पर इस पहलू को सभी देखते हैं - परीक्षाफल कैसा है आपका? अगर अच्छा तो ज़रूर स्कूल अच्छा होगा. फिर वही मासूम टाइप की बात! यह तो आप जानते ही हैं कि रिज़ल्ट चीटिंग कर के या पिटाई का भय दिखा कर भी लाये जा सकते हैं.

पर इस से भी ज्यादा ज़रूरी है कि किस तरह के नतीजे आप को सच में चाहिए हैं. क्या आप चाहते हैं कि आप का कोई छात्र गणित में तो बहुत अच्छा हो लेकिन इन्सान की तरह बिलकुल बेकार? या आप चाहते हैं कि परीक्षा में छात्र अच्छे अंक लायें ही, भले ही वे अपनी सीखी बातों को जीवन में या वास्तविक स्तिथियों में उतार पाएं या नहीं?

और फिर विषयों के अन्दर भी तो सीखने के बहुत सारे स्तर होते हैं. जो ज्यादा अहम् बातें हैं या उच्च-मानसिक स्तर वाले लक्ष्य हैं, क्या उन्हें अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए? लेकिन कई पहलू ऐसे हैं (जैसे कि वैज्ञानिक मानसिकता, या प्रयोग कर पाने की क्षमता या मौलिक अभिव्यक्ति या तथ्यों के बीच अंतर्संबंध पहचान पाना) जो महत्वपूर्ण होते हुए भी आंके नहीं जाते, अतः विकसित भी नहीं किये जाते.

तो अपने पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने आप से पूछें (और नोटबुक में लिखें!):

  • सच में क्या है जो महत्वपूर्ण है और जो हम चाहते हैं कि बच्चों के अन्दर सच में विकसित हो? 
  • क्या इसके लिए पर्याप्त मौके दिए जा रहे हैं? 
  • अगर नहीं तो आगे क्या करना चाहिए?

यहाँ पर आप के जवाब बड़े ही महत्वपूर्ण हैं - वे तय कर देते हैं कि आप के स्कूल के 'अच्छा' स्कूल बनने की सम्भावना है भी कि नहीं!

एक बार इन सवालों पर आप अपनी सोच स्पष्ट कर लेते हैं तो अगला और स्वाभाविक सवाल होगा - तो ये सब होगा कैसे? और यह पहुंचा देता है हमें अपने अगले पहलू की ओर - प्रक्रिया!

और इस पर लिखूंगा अगली पोस्ट में!

Saturday 16 October 2010

क्यों बदलूं मैं अपने आप को?

अगर आप शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं तो आज कल अपने आप को बदलने का काफी दबाव झेल रहे होंगे. जैसे गब्बर सिंह के आने का डर था, वैसे ही आर टी ई (शिक्षा का अधिकार कानून) का भी खौफ फ़ैल रहा है!

लेकिन अपने आप को बदलने के कारण तो वास्तव में कुछ और हैं. जो बदलाव चाहे गए हैं, वे वही हैं जिन से हम भी सहमत होंगे - जैसे बच्चों की ज़रूरतों को महत्व देना, अपने काम को प्रभावशाली तरीके से करना, बिने शारीरिक व मानसिक हिंसा के.

इसी लिए अपने आप को बदलने के कारण कुछ इस प्रकार हैं -
१. नए तरीकों से पढ़ाने में मज़ा आता है, बोझ कम हो जाता है, और कम काम/उर्जा से अधिक परिणाम मिलता है.  (आपको विश्वास नहीं होता तो कमेन्ट डालिए, मैं  विस्तार से लिखूंगा)
२. हम व्यवसायिक लोग हैं, एक मानक के हिसाब से अच्छा काम करके पैसा लेते हैं.
३. हमारा हक है कि हम अपने व्यवसायिक जीवन का आनंद लें!

ये तो थी आसान बात. लेकिन असली सवाल है कि बदलें क्या? और किस तरह से? इन पर पहले आप के सुझाव हो जाएँ, फिर मैं अपनी ओर से लिखूंगा.

Tuesday 12 October 2010

कैसे रिसोर्स पर्सन नहीं बनें

जब भी शिक्षा में दिशा तय करने की कोशिश होती है तो दो अलग तरह के स्रोतों पर जोर होता है. पहला तो है, शिक्षा के पितामाह किस्म के सीनियर लोग, जो कि आस्था चैनेल की तरह लम्बे-लम्बे प्रवचन देतें हैं और माना जाता है कि हम नादान लोगों को इससे प्रेरणा व दिशा मिलती है. आजकल इनके कुछ छोटे भाई भी हो गए हैं, जिन्हें हम मठादीश की उपाधि देंगे -- ये किसी एक विचारधारा के समर्थक होते हैं और मानते हैं कि जो भी इनके दायरे में नहीं आता, वह तो बात करने लायक भी नहीं है. कुल मिला कर ये दोनों तरह के लोग भक्तों की तलाश में रहते हैं. कहीं ना कहीं यह धारणा भी रहती है कि ये सच में बहुत कुछ जानते हैं और बाकी लोग दिमाग से कमज़ोर हैं.

दूसरा स्रोत है - आंकड़े-धारी लोग. इनके पास तरह-तरह की जानकारी होती है - बच्चों, शिक्षकों, स्कूलों, आदि के बारे में. इनकी नज़र में प्लैनिंग व क्रियान्वयन के मुख्य ध्येय है व्यवस्था को सही आकड़ों तक पहुँचाना. इनकी दृष्टि में भी आम आदमी व उसके कार्य मात्र एक माध्यम हैं - वही सही आकड़ों तक पहुँचने में.

आगे तो आप समझ ही गए होंगे कि हमें कम से कम इस तरह के रिसोर्स पर्सन तो नहीं ही बनना चाहिए. तो फिर किस तरह का रिसोर्स पर्सन बनना चाहिए ? इसके बारे में लिखेंगे अगली बार!

Saturday 9 October 2010

मिस्ड कॉल बच्चों की

जब से मोबाइल फ़ोन सस्ते हुए हैं, हम सब ज़रूरत पड़ने पर मिस्ड कॉल मार रहे हैं. बोला भी जाता है, 'कुछ चाहिए हो तो मिस्ड कॉल मार देना.'  लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर तरह की मिस्ड कॉल केवल फ़ोन से ही मारी जाए. देखें तो हर जगह हम एक दूसरे को कई तरीकों से इशारे करते रहते हैं, संकेत देते रहते हैं और रेस्पोंस भी करते हैं.

इसी तरह कक्षा में भी बच्चे हमें कॉल मारते रहते हैं, लेकिन हम मिस ही करते रहते हैं! उनके चेहरे, हाव-भाव और उत्साह में अचानक कमी से हमको पता चलना चाहिए कि वे हमारी बातें समझ रहे हैं कि नहीं, मन से भाग ले रहे हैं या नहीं... उनके किये गए काम से दिख जाता है कि हम उन तक पहुँचने में कितने सफल रहे.

अगर हमारे कमरे में घुसते ही शांति हो जाये या रौनक बढ़ जाये तो हमें कुछ सन्देश दिया जा रहा है. बच्चे कक्ष में अपने काम के लिए बेहिचक घूमते हैं या एक दूसरे की मदद करते हैं, तो वे हमें बता रहे हैं कि वे हम पर पूरी तरह विश्वास करते हैं. क्या बच्चे हमारे पास आने से कतराते हैं या खुल कर अपनी बात बताते हैं? क्या वे हमारी आँखों में आँखें डाल कर बातें कर पाते हैं?

ये हैं कुछ मिस्ड कॉल जो बच्चे हमें मारते हैं. और कौन-कौन सी कॉलें हैं जिन्हें हम मिस करते रहते हैं?

और क्या इसी तरह प्रक्षिक्षण के दौरान आप भी अपने प्रशिक्षक को मिस्ड कॉल मारते हैं? और क्या वे कॉलें ली जाती हैं?

Wednesday 6 October 2010

मेहनती नहीं, स्मार्ट बनिए !

जब भी शिक्षकों का प्रशिस्क्षण किया जाता है, उन्हें तरह-तरह की घिसी-पिटी बातें बताई जाती हैं. 'आप देश का भविष्य हैं, बहुत ज़िम्मेदारी है आपके कन्धों पर, जाइए जा कर खूब मेहनत करिए.' है न? सुनाया जाता है कि नहीं? और बार-बार सुन कर कान पक चुके हैं कि नहीं?

दरअसल यह बड़ा मासूम सा विचार है - जैसे कि केवल मेहनत करने से सब कुछ हो जाता है. नहीं भैय्या, दिमाग लगाना पड़ता है, दिमाग! जिन लोगों का काम केवल मेहनत का ही माना जाता है, वे लोग अपना दिमाग लगा कर ही ठीक से काम कर सकते हैं -- जैसे कि ट्रक से सामान उतारने वाले लेबरर, खेत में काम करता किसान, गड्ढा खोदने या सिर पर मलबा ढोने वाले लोग. अगर वे बिना सोचे-समझे अपना काम करें तो उन्हें चोट लग सकती है, नुकसान हो सकता है, फटकार लग सकती है.... तो शिक्षक के मामले में तो ये बात कहीं और ज्यादा लागू होगी!

स्मार्ट शिक्षक कक्षा में बच्चों की भूमिका बहुत अधिक बढाते हैं - और केवल साफ़-सफाई और रख-रखाव के मामले में ही नहीं, बल्कि सीखने की प्रक्रिया में. उदहारण के लिए चौथी कक्षा की शिक्षिका ने बच्चों से कहा,"जानते हो इस कहानी में एक दिन जब सिंह सो कर उठा, तो उसके सिर पर बाल ही नहीं थे. फिर उसने क्या किया अपने बाल वापिस पाने के लिए? पढो और पता करो!'

जब बच्चे पढने लगे तो वह उन बच्चों के साथ बैठ गयी जो कि पीछे छूटने के खतरे में थे. थोड़े समय के बाद उसने सबसे कहा, 'पढ़ कर जो शब्द समझ में नहीं आते हैं, उन पर गोला लगाओ. फिर अपने पड़ोसी से पूछो.' जब सबने यह काम कर लिया तो उसने समूह को कहा कि एक दूसरे से गोले लगे शब्दों के अर्थ पता करो. जो तुम लोग नहीं कर पाओगे, वे शब्दों को में बता दूँगी.'

आप सोच सकते होंगे कि इसके बाद उसने क्या किया होगा. पूरे समय इस शिक्षिका का हरेक बच्चा काम पर लगा रहा, सीखता रहा, दूसरों को सिखाता रहा, और वह खुद बहुत ही रेलाक्स्ड रही!

क्या हम भी इस तरह थोड़े आलसी और स्मार्ट बन सकते हैं?

Monday 4 October 2010

क्या पढ़ायें - पाठ्यचर्या या पाठ्यक्रम या पाठ्यपुस्तक?

आम तौर पर यही माना जाता है कि हमारा काम है पाठ्यपुस्तक को अच्छे से 'कवर' करना. लेकिन कोई भी पाठ्यपुस्तक अपने आप में पूरी शिक्षा के बराबर नहीं होती. वास्तव में वह उसका हिस्सा ही होती है, और तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मात्र एक सामाग्री. यानी, वह साध्य वहीँ बल्कि एक साधन है. यहाँ तक कि बहुत सारे देशों में तो पाठ्यपुस्तक ही नहीं होती. और हमारे गुरुकुलों में भी नहीं होते थी, क्योंकि गुरु ही तय करते थे कि कौन क्या सीखेगा, कितना और कैसे सीखेगा.

वास्तावे में तो पढ़ाने की सही दिशा मिलती है पाठ्यचर्या (curriculum) से. यह बताता है कि हमारे यहाँ चल रही शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य क्या हैं, किस तरह के बच्चों व समाज की कल्पना की गयी है, विषयों का क्या महत्व समझा गया है, और चाही गयी शिक्षा का व्यवहारिक रूप देने के लिए क्या सुझाया गया है.

इसी का एक हिस्सा होता है पाठ्यक्रम (syllabus) जो कि मुख्य तौर पर विषयों पर केन्द्रित होता है, कक्षानुसार सीखने के लक्ष्य, उनके क्रम व अनुपात (यानी कितना पढ़ाना है) को साफ़-साफ़ रखता है. यह भी बताता है कि मूल्यांकन में किन बिन्दुओं पर कितना जोर होगा.

हालाँकि पाठ्यपुस्तक को पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम के आधार पर ही बनाया जाता है, सीखने के कई लक्ष्यों को पुस्तक में शामिल ही नहीं किया जा सकता - जैसे कि प्रवाह से भाषा का प्रयोग करना, तर्क करना, वैज्ञानिक मानसिकता, व सामाजिक कौशलों का विकास, आदि, आदि. इस बात को मानना ज़रूरी नहीं है - अपने यहाँ के पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम का उठायें और पाठ्यपुस्तकों से तुलना कर के देख लें.

तो फिर पढ़ाएंगे कैसे? प्लानिंग कैसे करेंगे कि क्या पढ़ाना है, किस क्रम में, और कितना? जी हाँ, सही बताया आपने - पाठ्यचर्या व पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए पाठ योजना / पढ़ाने की योजना बनायेंगे. इस योजना में उपयुक्त जगह पर पाठ्यपुस्तक का उपयोग भी करेंगे!

Saturday 2 October 2010

जो जहाँ है वहीँ कुछ करे, और अच्छे से करे

सुधार की बात आते ही हमें लगता है की 'हम क्या करें? ये तो ऊपर वाले तय करेंगे.' लेकिन ऐसी सैकड़ों चीज़ें हैं जो हम खुद ही कर सकते हैं, जिनके लिए हमें न तो कोई आदेश / निर्देश की ज़रूरत है, न पैसे की, न ही किसी विशेष कौशल की. 


जैसे अगर हम शिक्षक हैं तो:

  • बच्चों की ओर देख कर मुस्करा सकते हैं! कई बार इसी से बहुत फर्क पड़ सकता है. और यह सबसे आसान चीज़ है.
  • पाठ पढ़ाने के पहले थोड़ी सी तयारी कर सकते हैं (बहुत सारे स्कूलों में तो संदर्शिकाएं भी उपलब्ध हैं).
  • इस पर नज़र रख सकते हैं की कौन से बच्चे पिछड़ने के खतरे में हैं - और उन पर थोड़ा अधिक जोर दे सकते हैं.
  • समय-समय पर देख सकते हैं की बच्चों को समझ में आ रहा है कि नहीं.

और भी बहुत कुछ होगा जो आसानी से किया जा सकता है - सुझाव आमंत्रित हैं!


अगली बार - अगर आप सी आर सी पर हैं, तो आप क्या कर सकते हैं?

Friday 1 October 2010

पागलों की बिरादरी

पागलों की बिरादरी - यह भी कोई बात होती है?

जी हाँ, यह उन लोगों की बात हो रही है जो सच में कुछ करने की कोशिश करते हैं और पाते हैं की दूसरे उन्हें पागल का दर्ज़ा देते हैं. जैसे जब एक शिक्षक सच में पढ़ने लगता है तो बाकी शिक्षक कहते हैं, "अरे, पागल तो नहीं हो गए? तुम ऐसा करोगे तो हम सब को भी सच में पढ़ना पड़ेगा."

वर्षों तक झेलने के बाद, अब ये सारे 'पागलों' ने एक दूसरे को ढूंढना शुरू कर दिया है. अगर आप शिक्षा में काम करते हैं, और चाहते हैं की जहाँ भी हैं, अच्छा काम करें, तो बिरादरी में आपका स्वागत है!